Class 10 Hindi Notes Chapter 3 (बिहारी: दोहे) – Sparsh Book

Sparsh
नमस्ते विद्यार्थियों। आज हम कक्षा 10 की 'स्पर्श' पाठ्यपुस्तक के तीसरे अध्याय 'बिहारी: दोहे' का गहन अध्ययन करेंगे, जो आपकी सरकारी परीक्षाओं की तैयारी में अत्यंत सहायक सिद्ध होगा। बिहारीलाल रीतिकाल के एक अत्यंत महत्वपूर्ण कवि हैं, जिनकी एकमात्र रचना 'बिहारी सतसई' ने उन्हें हिंदी साहित्य में अमर कर दिया। उनके दोहे 'गागर में सागर' भरने की क्षमता रखते हैं, अर्थात कम शब्दों में गहरी और अनेक अर्थों वाली बात कह देते हैं।

इस पाठ में संकलित दोहों में हमें भक्ति, नीति और श्रृंगार के सुंदर उदाहरण मिलते हैं। आइए, इन दोहों का विस्तृत विश्लेषण करें:

कवि परिचय:

  • नाम: बिहारीलाल चौबे (या दुबे)
  • जन्म: लगभग 1595 ई. ग्वालियर के पास बसुआ गोविंदपुर गाँव में।
  • मृत्यु: लगभग 1663 ई.
  • काल: रीतिकाल (रीतिसिद्ध काव्यधारा के प्रतिनिधि कवि)
  • आश्रयदाता: जयपुर नरेश महाराजा जयसिंह
  • रचना: बिहारी सतसई (लगभग 713 दोहे)
  • भाषा: परिष्कृत ब्रजभाषा
  • विशेषता: कम शब्दों में गहन अर्थ (गागर में सागर भरना), कल्पना की समाहार शक्ति, भाषा की समास शक्ति, श्रृंगार, भक्ति और नीति का त्रिवेणी संगम।

पाठ में संकलित दोहों की विस्तृत व्याख्या:

दोहा 1:
सोहत ओढ़ैं पीतु पटु, स्याम सलौनैं गात।
मनौ नीलमनि-सैल पर, आतपु परयौ प्रभात॥

  • शब्दार्थ: सोहत - सुशोभित होना, अच्छा लगना; ओढ़ैं - ओढ़े हुए; पीतु पटु - पीला वस्त्र; स्याम - साँवले (श्रीकृष्ण); सलौनैं - सलोने, सुंदर; गात - शरीर; मनौ - मानो (उत्प्रेक्षावाचक शब्द); नीलमनि-सैल - नीलमणि पर्वत; आतपु - धूप, प्रकाश; परयौ - पड़ रहा हो; प्रभात - सुबह।
  • सरलार्थ: कवि बिहारी कहते हैं कि साँवले सुंदर शरीर वाले श्रीकृष्ण पीले वस्त्र ओढ़े हुए ऐसे सुशोभित हो रहे हैं, मानो नीलमणि पर्वत पर प्रातःकाल की सुनहरी धूप पड़ रही हो।
  • काव्य सौंदर्य/विशेष:
    • रस: श्रृंगार रस (कृष्ण के सौंदर्य का वर्णन), भक्ति रस (कृष्ण के प्रति श्रद्धा)
    • अलंकार:
      • उत्प्रेक्षा अलंकार ('मनौ' शब्द के प्रयोग से - साँवले शरीर (उपमेय) पर पीले वस्त्र की शोभा की संभावना नीलमणि पर्वत (उपमान) पर प्रातःकालीन धूप पड़ने से की गई है)।
      • अनुप्रास अलंकार ('स्याम सलौनैं' में 'स' वर्ण की आवृत्ति)।
    • भाषा: ब्रजभाषा।
    • छंद: दोहा।
    • श्रीकृष्ण के रूप-सौंदर्य का मनोहारी चित्रण।

दोहा 2:
कहलाने एकत बसत, अहि मयूर मृग बाघ।
जगतु तपोबन सौ कियौ, दीरघ दाघ निदाघ॥

  • शब्दार्थ: कहलाने - कहलाते हैं, कहे जाते हैं; एकत - एक साथ; बसत - रहते हैं, निवास करते हैं; अहि - साँप; मयूर - मोर; मृग - हिरण; बाघ - शेर; जगतु - संसार; तपोबन - वह वन जहाँ तपस्वी रहते हैं (शांति का प्रतीक); सौ कियौ - जैसा बना दिया; दीरघ दाघ - भयंकर गर्मी; निदाघ - ग्रीष्म ऋतु।
  • सरलार्थ: कवि कहते हैं कि भीषण गर्मी ने इस संसार को तपोवन जैसा बना दिया है, जहाँ स्वाभाविक रूप से शत्रुता रखने वाले साँप और मोर, हिरण और बाघ भी आपसी द्वेष भुलाकर एक साथ रहने को विवश हो गए हैं। (गर्मी की प्रचंडता ने सबको व्याकुल कर दिया है)।
  • काव्य सौंदर्य/विशेष:
    • रस: शांत रस (तपोवन के वर्णन से), अद्भुत रस (विरोधी जीवों का साथ रहना)।
    • अलंकार:
      • विरोधाभास अलंकार (स्वाभाविक वैर रखने वालों का एक साथ रहना)।
      • अतिशयोक्ति अलंकार (गर्मी के प्रभाव का बढ़ा-चढ़ाकर वर्णन)।
      • अनुप्रास अलंकार ('दीरघ दाघ' में 'द' और 'घ' की आवृत्ति)।
    • भाषा: ब्रजभाषा।
    • छंद: दोहा।
    • ग्रीष्म ऋतु की भयंकरता और उसके प्रभाव का चित्रण। विपरीत परिस्थितियों में शत्रु भी मित्रता कर लेते हैं - यह नीति भी ध्वनित होती है।

दोहा 3:
बतरस लालच लाल की, मुरली धरी लुकाइ।
सौंह करैं, भौंहनु हँसैं, दैन कहैं, नटि जाइ॥

  • शब्दार्थ: बतरस - बातों का रस, बातचीत का आनंद; लालच - लोभ; लाल की - श्रीकृष्ण की; मुरली - बाँसुरी; धरी - रख दी; लुकाइ - छिपाकर; सौंह करैं - कसम खाती हैं; भौंहनु हँसैं - भौंहों से हँसती हैं (इशारा करती हैं); दैन कहैं - देने को कहती हैं (पूछने पर); नटि जाइ - मना कर देती हैं।
  • सरलार्थ: गोपियों (विशेषकर राधा) ने श्रीकृष्ण से बात करने के आनंद के लालच में उनकी मुरली छिपा दी है। जब कृष्ण पूछते हैं, तो वे (झूठी) कसम खाती हैं (कि उन्होंने नहीं छिपाई), पर भौंहों से मुस्कुरा देती हैं (जिससे पता चलता है कि मुरली उन्हीं के पास है), कृष्ण के देने को कहने पर साफ मना कर देती हैं।
  • काव्य सौंदर्य/विशेष:
    • रस: श्रृंगार रस (संयोग श्रृंगार - राधा-कृष्ण की प्रेम क्रीड़ा)।
    • अलंकार:
      • अनुप्रास अलंकार ('बतरस लालच लाल' में 'ल' की आवृत्ति)।
      • स्वभावोक्ति अलंकार (गोपियों की स्वाभाविक चेष्टाओं का यथार्थ चित्रण)।
    • भाषा: ब्रजभाषा।
    • छंद: दोहा।
    • नायिका (गोपी/राधा) की चतुराई और कृष्ण के प्रति प्रेम का सजीव चित्रण।

दोहा 4:
नाचि अचानक ही उठे, बिनु पावस बन मोर।
जानति हो नंदित करी, यह दिसि नंदकिसोर॥

  • शब्दार्थ: नाचि उठे - नाचने लगे; बिनु पावस - बिना वर्षा ऋतु के; बन मोर - जंगल के मोर; जानति हो - जान पड़ता है, लगता है; नंदित करी - आनंदित कर दिया है, प्रसन्न कर दिया है; यह दिसि - इस दिशा में; नंदकिसोर - नंद के पुत्र श्रीकृष्ण।
  • सरलार्थ: कवि कहते हैं कि बिना वर्षा ऋतु के ही वन में मोर अचानक नाच उठे हैं। इससे ऐसा जान पड़ता है कि इस दिशा में नंदकिशोर श्रीकृष्ण आ गए हैं (क्योंकि उनके साँवले शरीर को देखकर मोरों को काले बादलों का भ्रम हो गया है)।
  • काव्य सौंदर्य/विशेष:
    • रस: श्रृंगार रस, भक्ति रस।
    • अलंकार:
      • भ्रांतिमान अलंकार (मोरों को कृष्ण के साँवले शरीर में काले बादलों का भ्रम होना)।
      • अनुप्रास अलंकार ('नंदित नंदकिसोर' में 'न' और 'द' की आवृत्ति)।
    • भाषा: ब्रजभाषा।
    • छंद: दोहा।
    • श्रीकृष्ण के साँवले सौंदर्य की तुलना मेघों से की गई है, जो काव्य परंपरा में प्रसिद्ध है।

दोहा 5:
लिखन बैठि जाकी सबी, गहि गहि गरब गरूर।
भए न केते जगत के, चतुर चितेरे कूर॥

  • शब्दार्थ: लिखन बैठि - लिखने (चित्र बनाने) बैठे; जाकी - जिसकी (नायिका की); सबी - छवि, तस्वीर, रूप-सौंदर्य; गहि गहि - पकड़-पकड़ कर, बार-बार; गरब - गर्व; गरूर - अभिमान, घमंड; भए न केते - कितने ही नहीं हो गए; जगत के - संसार के; चतुर चितेरे - कुशल चित्रकार; कूर - मूर्ख, अयोग्य।
  • सरलार्थ: कवि कहते हैं कि उस नायिका की छवि का चित्रण करने के लिए संसार के कितने ही चतुर चित्रकार बड़े गर्व और अभिमान के साथ बैठे, किंतु वे उसकी तस्वीर बना नहीं पाए और मूर्ख सिद्ध हुए। कारण यह है कि नायिका का सौंदर्य प्रतिक्षण बदलता रहता है (उसकी सुंदरता इतनी अधिक और परिवर्तनशील है कि उसे चित्रित करना असंभव है)।
  • काव्य सौंदर्य/विशेष:
    • रस: श्रृंगार रस (नायिका के अलौकिक सौंदर्य का वर्णन)।
    • अलंकार:
      • अतिशयोक्ति अलंकार (नायिका के प्रतिक्षण बदलते सौंदर्य का बढ़ा-चढ़ाकर वर्णन)।
      • पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार ('गहि गहि')।
      • अनुप्रास अलंकार ('गरब गरूर' में 'ग', 'र'; 'चतुर चितेरे' में 'च', 'त', 'र')।
    • भाषा: ब्रजभाषा।
    • छंद: दोहा।
    • नायिका के अप्रतिम एवं क्षण-क्षण परिवर्तित होने वाले सौंदर्य का वर्णन।

दोहा 6:
दीरघ साँस न लेहु दुख, सुख साँईं हि न भूलि।
दई दई क्यौं करतु है, दई दई सु कबूलि॥

  • शब्दार्थ: दीरघ साँस - लंबी आह; न लेहु - मत लो; दुख - दुःख में; सुख - सुख में; साँईं हि - ईश्वर को; न भूलि - मत भूलो; दई दई - हाय दैव! हाय दैव!; क्यौं करतु है - क्यों करता है; दई दई - दैव (ईश्वर) ने जो दिया है; सु कबूलि - उसे स्वीकार कर।
  • सरलार्थ: कवि नीति की बात कहते हैं कि हे मनुष्य! दुःख में लंबी-लंबी साँसें लेकर और अधिक दुःखी मत हो, और सुख में ईश्वर को मत भूलो। तुम हर समय 'हाय दैव! हाय दैव!' क्यों करते रहते हो? दैव ने तुम्हें जो भी (सुख या दुःख) दिया है, उसे प्रसन्नतापूर्वक स्वीकार करो।
  • काव्य सौंदर्य/विशेष:
    • रस: शांत रस (नीति उपदेश)।
    • अलंकार:
      • यमक अलंकार ('दई दई' शब्द दो बार आया है, पहले का अर्थ 'हाय दैव' या 'दैव ने नहीं दिया' और दूसरे का अर्थ 'दैव ने जो दिया है')।
      • अनुप्रास अलंकार ('दीरघ दुख', 'सुख साँईं')।
    • भाषा: ब्रजभाषा।
    • छंद: दोहा।
    • जीवन में सुख-दुःख को समान भाव से अपनाने का उपदेश। ईश्वर की इच्छा को स्वीकार करने की सीख।

दोहा 7:
मेरी भव बाधा हरौ, राधा नागरि सोइ।
जा तन की झाँईं परैं, स्याम हरित दुति होइ॥

  • शब्दार्थ: भव बाधा - सांसारिक कष्ट, जन्म-मरण का चक्र; हरौ - दूर करो; राधा नागरि - चतुर राधिका; सोइ - वही; जा तन की - जिनके शरीर की; झाँईं - परछाईं, झलक; परैं - पड़ने पर; स्याम - श्रीकृष्ण (साँवले रंग के), पाप, दुःख; हरित दुति - हरे रंग की आभा वाले, प्रसन्न, कांतिहीन।
  • सरलार्थ: कवि बिहारी प्रार्थना करते हैं कि वही चतुर राधिका मेरे सांसारिक कष्टों को दूर करें, जिनके गोरे शरीर की झलक मात्र पड़ने से साँवले श्रीकृष्ण हरे रंग की आभा वाले (अर्थात प्रसन्न) हो जाते हैं।
    • दूसरा अर्थ (श्लेष): जिनके शरीर की परछाईं पड़ने से (साँवले) पाप और दुःख रूपी श्याम रंग भी हरित (कांतिहीन, नष्ट) हो जाता है।
    • तीसरा अर्थ (रंग सिद्धांत): जिनके पीले (गोरे) तन की झलक पड़ने से श्याम (नीला) रंग हरा हो जाता है (पीला + नीला = हरा)।
  • काव्य सौंदर्य/विशेष:
    • रस: भक्ति रस।
    • अलंकार:
      • श्लेष अलंकार ('झाँईं' के अर्थ - परछाईं, झलक; 'स्याम' के अर्थ - श्रीकृष्ण, पाप/दुःख, काला/नीला रंग; 'हरित दुति' के अर्थ - हरे रंग की आभा, प्रसन्न, कांतिहीन/नष्ट)। यह बिहारी सतसई का मंगलाचरण भी माना जाता है।
    • भाषा: ब्रजभाषा।
    • छंद: दोहा।
    • राधा की महिमा का गान और उनसे कृपा की याचना।

दोहा 8:
जपमाला, छापैं, तिलक, सरै न एकौ कामु।
मन काँचै नाचै बृथा, साँचै राँचै रामु॥

  • शब्दार्थ: जपमाला - जपने की माला; छापैं - छापे (राम-नाम लिखे वस्त्र या शरीर पर छापे); तिलक - माथे पर लगाया जाने वाला तिलक; सरै न - सिद्ध नहीं होता, पूरा नहीं होता; एकौ कामु - एक भी काम; मन काँचै - कच्चा मन, अस्थिर मन, जिसमें सच्चाई न हो; नाचै बृथा - व्यर्थ में भटकता है, नाचता है; साँचै - सच्चे (मन) में; राँचै - रमते हैं, प्रसन्न होते हैं; रामु - ईश्वर।
  • सरलार्थ: कवि कहते हैं कि केवल माला जपने, राम-नाम के छापे लगाने या तिलक धारण करने जैसे बाहरी आडंबरों से एक भी काम सिद्ध नहीं होता (ईश्वर प्राप्त नहीं होते)। यदि मन कच्चा है, अस्थिर है, तो वह व्यर्थ ही इधर-उधर भटकता रहता है। ईश्वर तो सच्चे मन में ही रमते हैं, सच्ची भक्ति से ही प्रसन्न होते हैं।
  • काव्य सौंदर्य/विशेष:
    • रस: शांत रस, भक्ति रस (नीतिपरक भक्ति)।
    • अलंकार:
      • अनुप्रास अलंकार ('सरै न', 'काँचै नाचै', 'साँचै राँचै रामु')।
    • भाषा: ब्रजभाषा।
    • छंद: दोहा।
    • बाहरी आडंबरों का खंडन और सच्ची भक्ति का महत्व प्रतिपादित किया गया है। मन की पवित्रता पर जोर।

पाठ का सार:
बिहारी के इन दोहों में कृष्ण के रूप सौंदर्य का मनोहारी चित्रण, प्रकृति का सूक्ष्म निरीक्षण (गर्मी का प्रभाव, मोरों का नाचना), गोपियों की प्रेम-चेष्टाएँ, नायिका के अलौकिक सौंदर्य का वर्णन, जीवन के नीतिपरक उपदेश (सुख-दुःख में समभाव, आडंबर का विरोध) और राधा के प्रति भक्ति भावना व्यक्त हुई है। बिहारी अपनी भाषा की समास शक्ति और कल्पना की समाहार शक्ति द्वारा कम शब्दों में बहुत बड़ी बात कह जाते हैं।

परीक्षा उपयोगी महत्वपूर्ण बिंदु:

  • बिहारी रीतिकाल के रीतिसिद्ध कवि हैं।
  • उनकी एकमात्र रचना 'बिहारी सतसई' है।
  • उनकी भाषा परिष्कृत ब्रजभाषा है।
  • वे 'गागर में सागर' भरने के लिए प्रसिद्ध हैं।
  • पाठ के दोहों में श्रृंगार, भक्ति और नीति तीनों का समावेश है।
  • प्रमुख अलंकार: उत्प्रेक्षा, अनुप्रास, विरोधाभास, भ्रांतिमान, अतिशयोक्ति, यमक, श्लेष।
  • 'मेरी भव बाधा हरौ...' दोहे में श्लेष अलंकार का उत्कृष्ट उदाहरण है।
  • 'जपमाला छापैं...' दोहे में बाहरी आडंबरों का खंडन किया गया है।
  • 'सोहत ओढ़ैं पीतु पटु...' में उत्प्रेक्षा अलंकार है।
  • 'दई दई...' में यमक अलंकार है।

अभ्यास हेतु बहुविकल्पीय प्रश्न (MCQs):

  1. बिहारी किस काल के कवि माने जाते हैं?
    (क) भक्तिकाल
    (ख) रीतिकाल
    (ग) आदिकाल
    (घ) आधुनिक काल

  2. 'सोहत ओढ़ैं पीतु पटु...' दोहे में 'पीतु पटु' का क्या अर्थ है?
    (क) लाल वस्त्र
    (ख) नीला वस्त्र
    (ग) पीला वस्त्र
    (घ) हरा वस्त्र

  3. किस ऋतु की भयंकरता के कारण साँप और मोर एक साथ रहने लगे?
    (क) शीत ऋतु
    (ख) वर्षा ऋतु
    (ग) वसंत ऋतु
    (घ) ग्रीष्म ऋतु

  4. गोपियों ने कृष्ण की मुरली क्यों छिपा ली?
    (क) उन्हें मुरली पसंद नहीं थी
    (ख) वे कृष्ण को चिढ़ाना चाहती थीं
    (ग) वे कृष्ण से बातचीत का आनंद लेना चाहती थीं
    (घ) मुरली टूट गई थी

  5. 'मनौ नीलमनि-सैल पर, आतपु परयौ प्रभात' - इस पंक्ति में कौन सा अलंकार है?
    (क) उपमा
    (ख) रूपक
    (ग) उत्प्रेक्षा
    (घ) यमक

  6. बिना वर्षा ऋतु के मोर क्यों नाच उठे?
    (क) बादल देखकर
    (ख) कृष्ण को देखकर (बादलों का भ्रम होने से)
    (ग) अपनी खुशी से
    (घ) गर्मी से व्याकुल होकर

  7. 'दई दई क्यौं करतु है, दई दई सु कबूलि' - इस पंक्ति में 'दई दई' शब्द में कौन सा अलंकार है?
    (क) श्लेष
    (ख) यमक
    (ग) अनुप्रास
    (घ) पुनरुक्ति प्रकाश

  8. कवि बिहारी किसके द्वारा अपनी सांसारिक बाधाओं को दूर करने की प्रार्थना करते हैं?
    (क) श्रीकृष्ण
    (ख) शिवजी
    (ग) चतुर राधिका
    (घ) ईश्वर

  9. बिहारी के अनुसार ईश्वर किस प्रकार के मन में वास करते हैं?
    (क) आडंबर करने वाले मन में
    (ख) माला जपने वाले मन में
    (ग) तिलक लगाने वाले मन में
    (घ) सच्चे मन में

  10. 'गागर में सागर भरना' उक्ति किस कवि के लिए प्रसिद्ध है?
    (क) सूरदास
    (ख) तुलसीदास
    (ग) कबीरदास
    (घ) बिहारीलाल

उत्तरमाला:

  1. (ख)
  2. (ग)
  3. (घ)
  4. (ग)
  5. (ग)
  6. (ख)
  7. (ख)
  8. (ग)
  9. (घ)
  10. (घ)

मुझे उम्मीद है कि ये विस्तृत नोट्स और प्रश्न आपकी परीक्षा की तैयारी में उपयोगी होंगे। ध्यानपूर्वक अध्ययन करें और अभ्यास करते रहें। शुभकामनाएँ!

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