Class 10 Hindi Notes Chapter 3 (देव: पायनि नूपुर; डार द्रुम पलना; फटिक सिलानि) – Kshitij-II Book

चलिए, आज हम कक्षा 10 की 'क्षितिज-II' पुस्तक के पाठ 3, जिसमें महाकवि देव के सवैये और कवित्त संकलित हैं, का विस्तृत अध्ययन करेंगे। यह पाठ सरकारी परीक्षाओं की दृष्टि से भी महत्वपूर्ण है, विशेषकर जहाँ हिंदी साहित्य से प्रश्न पूछे जाते हैं।
कवि परिचय: देव (Dev)
- पूरा नाम: देवदत्त द्विवेदी
- जन्म: इटावा (उत्तर प्रदेश) में, संवत् 1730 (सन् 1673 ई.)
- काल: रीतिकाल (ये रीतिबद्ध धारा के प्रमुख कवियों में गिने जाते हैं, हालाँकि कुछ विद्वान इन्हें रीतिमुक्त भी मानते हैं।)
- आश्रयदाता: देव अनेक राजाओं और रईसों के आश्रय में रहे, जिनमें औरंगजेब के पुत्र आजमशाह, भवानीदत्त वैश्य, कुशलसिंह, भोगीलाल आदि प्रमुख हैं। भोगीलाल ने इनकी कविता पर रीझकर इन्हें लाखों की संपत्ति दान की थी।
- रचनाएँ: इनकी लगभग 52 से 72 रचनाएँ मानी जाती हैं, जिनमें 'भावविलास', 'अष्टयाम', 'भवानीविलास', 'रसविलास', 'सुजानविनोद', 'काव्यरसायन' (या शब्दरसायन), 'देवचरित्र', 'देवमायाप्रपंच' आदि प्रमुख हैं।
- काव्यगत विशेषताएँ:
- श्रृंगार रस: देव मुख्यतः श्रृंगार रस के कवि हैं। इन्होंने संयोग और वियोग दोनों पक्षों का मार्मिक चित्रण किया है।
- अलंकार प्रियता: देव अलंकारों के प्रयोग में सिद्धहस्त थे। अनुप्रास, यमक, उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा आदि अलंकारों का सहज एवं स्वाभाविक प्रयोग इनकी कविता में मिलता है।
- प्रकृति चित्रण: प्रकृति के उद्दीपन और आलंबन दोनों रूपों का चित्रण किया है।
- भाषा: परिष्कृत और प्रवाहमयी ब्रजभाषा का प्रयोग किया है। भाषा में संगीतात्मकता और नाद-सौंदर्य विद्यमान है।
- छंद: कवित्त और सवैया इनके प्रिय छंद हैं।
पाठ में संकलित रचनाएँ
इस पाठ में देव के तीन छंद संकलित हैं: एक सवैया और दो कवित्त।
1. सवैया: "पाँयनि नूपुर मंजु बजैं..."
- संदर्भ: प्रस्तुत सवैया कवि देव द्वारा रचित है। इसमें कवि ने बालक श्रीकृष्ण के राजसी रूप-सौंदर्य का मनोहारी वर्णन किया है।
- भावार्थ/व्याख्या:
पाँयनि नूपुर मंजु बजैं, कटि किंकिनि कै धुनि की मधुराई।- अर्थ: श्रीकृष्ण के पैरों (पाँयनि) में सुंदर (मंजु) पायल (नूपुर) बज रहे हैं और कमर (कटि) में बंधी करधनी (किंकिनि) की ध्वनि (धुनि) भी बहुत मधुर लग रही है।
साँवरे अंग लसै पट पीत, हिये हुलसै बनमाल सुहाई।- अर्थ: उनके साँवले शरीर (अंग) पर पीला वस्त्र (पट पीत) सुशोभित (लसै) हो रहा है और हृदय (हिये) पर सुंदर वनफूलों की माला (बनमाल) शोभायमान (हुलसै/सुहाई) है।
माथे किरीट बड़े दृग चंचल, मंद हँसी मुखचंद जुन्हाई।- अर्थ: मस्तक (माथे) पर मुकुट (किरीट) है, उनके बड़े-बड़े नेत्र (दृग) चंचल हैं। उनके मुख रूपी चंद्रमा (मुखचंद) पर मंद-मंद मुस्कान (मंद हँसी) चांदनी (जुन्हाई) के समान फैली हुई है।
जै जग-मंदिर-दीपक सुंदर, श्री ब्रजदूलह 'देव' सहाई।- अर्थ: कवि देव कहते हैं कि संसार रूपी मंदिर (जग-मंदिर) के सुंदर दीपक (दीपक सुंदर), ब्रज के दूल्हे (श्री ब्रजदूलह) अर्थात् श्रीकृष्ण सबकी सहायता (सहाई) करें।
- काव्य-सौंदर्य:
- रस: भक्ति एवं वात्सल्य रस का सुंदर परिपाक, साथ ही श्रृंगार (रूप-वर्णन) की छटा।
- भाषा: मधुर, सरस ब्रजभाषा।
- अलंकार:
- अनुप्रास: 'कटि किंकिनि कै', 'हिये हुलसै' में वर्णों की आवृत्ति।
- रूपक: 'मुखचंद' (मुख रूपी चंद्रमा), 'जग-मंदिर' (संसार रूपी मंदिर)।
- उपमा: 'जुन्हाई' (मंद हंसी की तुलना चांदनी से)।
- छंद: सवैया।
- गुण: माधुर्य गुण।
- बिंब: दृश्य बिंब साकार हो उठता है (श्रीकृष्ण का चलता-फिरता, सजीव चित्र)।
- नाद-सौंदर्य: 'नूपुर', 'किंकिनि' की ध्वनियों से संगीतात्मकता।
2. कवित्त: "डार द्रुम पलना बिछौना नव पल्लव के..."
- संदर्भ: प्रस्तुत कवित्त कवि देव द्वारा रचित है। इसमें कवि ने वसंत ऋतु को एक नवजात शिशु (बालक) के रूप में चित्रित करते हुए प्रकृति के विभिन्न उपादानों को उस बालक के लालन-पालन में सहायक बताया है।
- भावार्थ/व्याख्या:
डार द्रुम पलना बिछौना नव पल्लव के, सुमन झिंगूला सोहै तन छबि भारी दै।- अर्थ: पेड़ की डाल (डार द्रुम) वसंत रूपी शिशु का पालना (पलना) है, नए पत्ते (नव पल्लव) उसका बिछौना हैं। फूलों (सुमन) का ढीला-ढाला वस्त्र (झिंगूला) उसके शरीर पर सुशोभित (सोहै) है, जिससे उसके तन की छवि और बढ़ गई है।
पवन झुलावै, केकी-कीर बतरावैं 'देव', कोकिल हलावै-हुलसावै कर तारी दै।- अर्थ: हवा (पवन) उस पालने को झुला रही है, मोर (केकी) और तोता (कीर) उससे बातें (बतरावैं) कर रहे हैं। कोयल (कोकिल) आकर उसे हिलाती-डुलाती (हलावै-हुलसावै) है और ताली बजाकर (कर तारी दै) प्रसन्न करती है।
पूरित पराग सों उतारो करै राई नोन, कंजकली नायिका लतान सिर सारी दै।- अर्थ: कमल की कली रूपी नायिका (कंजकली नायिका), जिसने लताओं की साड़ी (लतान सिर सारी) सिर पर डाल रखी है, फूलों के पराग (पूरित पराग) से वैसे ही बालक (वसंत) की नज़र उतार रही है जैसे राई और नमक (राई नोन) से उतारी जाती है।
मदन महीप जू को बालक बसंत ताहि, प्रातहि जगावत गुलाब चटकारी दै।- अर्थ: वह बालक वसंत कामदेव महाराज (मदन महीप जू) का पुत्र है, जिसे सुबह (प्रातहि) गुलाब चुटकी बजाकर (चटकारी दै) जगाता है। (खिलते हुए गुलाब की चटकने की ध्वनि को चुटकी बजाना कहा गया है।)
- काव्य-सौंदर्य:
- रस: वात्सल्य रस (प्रकृति के संदर्भ में)।
- भाषा: प्रवाहमयी, चित्रात्मक ब्रजभाषा।
- अलंकार:
- मानवीकरण: पूरे छंद में प्रकृति के उपादानों (पेड़, पत्ते, फूल, हवा, मोर, तोता, कोयल, कमल कली, गुलाब) का मानवीकरण किया गया है। यह प्रमुख अलंकार है।
- रूपक: 'डार द्रुम पलना', 'सुमन झिंगूला', 'कंजकली नायिका'।
- अनुप्रास: 'केकी-कीर', 'हलावै-हुलसावै' आदि में वर्णों की आवृत्ति।
- छंद: कवित्त (मनहरण)।
- गुण: प्रसाद एवं माधुर्य गुण।
- बिंब: प्रकृति का सजीव, गतिशील दृश्य बिंब।
3. कवित्त: "फटिक सिलानि सौं सुधार्यौ सुधा मंदिर..."
- संदर्भ: प्रस्तुत कवित्त कवि देव द्वारा रचित है। इसमें कवि ने पूर्णिमा की चाँदनी रात की उज्ज्वल सुंदरता का वर्णन किया है, जिसकी तुलना स्फटिक (क्रिस्टल) के मंदिर से की गई है। साथ ही, राधा के रूप सौंदर्य की झलक भी प्रस्तुत की है।
- भावार्थ/व्याख्या:
फटिक सिलानि सौं सुधार्यौ सुधा मंदिर, उदधि दधि को सो अधिकाइ उमगे अमंद।- अर्थ: कवि कल्पना करते हैं कि पूर्णिमा की रात में आकाश स्फटिक (फटिक) शिलाओं (सिलानि) से बने हुए अमृत (सुधा) के मंदिर जैसा लग रहा है। उसकी उज्ज्वलता (सफेदी) दही के समुद्र (उदधि दधि) के समान अत्यधिक (अधिकाइ) और तीव्र गति (अमंद) से उमड़ (उमगे) रही है (चारों ओर फैली हुई है)।
बाहर ते भीतर लौं भीति न दिखैए 'देव', दूध को सो फेन फैल्यो आँगन फरसबंद।- अर्थ: देव कहते हैं कि उस चांदनी रूपी मंदिर में बाहर से भीतर तक कोई दीवार (भीति) नहीं दिखाई देती (अर्थात् सब कुछ पारदर्शी है)। ऐसा लगता है मानो आँगन के फर्श (आँगन फरसबंद) पर दूध का झाग (दूध को सो फेन) फैला हुआ हो।
तारा सी तरुनी तामें ठाढ़ी झिलमिली होति, मोतिन की जोति मिल्यो मल्लिका को मकरंद।- अर्थ: उस उज्ज्वल वातावरण में खड़ी हुई युवती (संभवतः राधा) तारों के समान (तारा सी तरुनी) झिलमिला रही है। उसके सौंदर्य की आभा ऐसी है मानो मोतियों की चमक (मोतिन की जोति) में बेला (मल्लिका) का पराग (मकरंद) मिल गया हो (अर्थात् सफेदी और सुगंध का अद्भुत मिश्रण)।
आरसी से अंबर में आभा सी उजारी लागै, प्यारी राधिका को प्रतिबिंब सो लगत चंद।- अर्थ: दर्पण (आरसी) के समान स्वच्छ आकाश (अंबर) में चंद्रमा की उज्ज्वल आभा (आभा सी उजारी) ऐसी लग रही है, मानो वह प्यारी राधा का प्रतिबिंब (प्रतिबिंब) हो। (यहाँ चाँद की सुंदरता की तुलना राधा के मुख सौंदर्य से की गई है।)
- काव्य-सौंदर्य:
- रस: श्रृंगार रस (चांदनी रात और राधा के सौंदर्य वर्णन में)। अद्भुत रस की भी झलक है।
- भाषा: परिष्कृत, तत्सम शब्दावली युक्त ब्रजभाषा।
- अलंकार:
- उपमा: 'उदधि दधि को सो', 'दूध को सो फेन', 'तारा सी तरुनी', 'आरसी से अंबर में आभा सी उजारी'।
- रूपक: 'सुधा मंदिर' (चांदनी रात को अमृत का मंदिर कहना)।
- अनुप्रास: वर्णों की आवृत्ति।
- उत्प्रेक्षा: अंतिम पंक्ति में 'प्रतिबिंब सो लगत चंद' (मानो चंद्रमा राधा का प्रतिबिंब हो)।
- छंद: कवित्त (मनहरण)।
- गुण: प्रसाद एवं माधुर्य गुण।
- बिंब: उज्ज्वल, धवल, पारदर्शी दृश्य बिंब।
- विशेष: कवि ने चांदनी की उज्ज्वलता और निर्मलता दर्शाने के लिए स्फटिक शिला, सुधा मंदिर, दही का समुद्र, दूध का झाग, मोती, मल्लिका का मकरंद, आरसी (दर्पण) जैसे श्वेत और पारदर्शी उपमानों का प्रयोग किया है।
परीक्षा हेतु विशेष बिंदु:
- कवि देव का जीवन परिचय और उनकी प्रमुख रचनाएँ याद रखें।
- तीनों छंदों का मूल भाव और प्रसंग समझें (पहले में कृष्ण का रूप, दूसरे में वसंत का मानवीकरण, तीसरे में चाँदनी रात)।
- प्रत्येक छंद की कठिन शब्दावली का अर्थ जानें (जैसे- मंजु, किंकिणि, पट पीत, जुन्हाई, द्रुम, झिंगूला, केकी, कीर, कंजकली, फटिक, उदधि, भीति, आरसी, मकरंद)।
- प्रत्येक छंद में प्रयुक्त मुख्य अलंकारों (विशेषकर रूपक, उपमा, मानवीकरण, अनुप्रास) को पहचानना सीखें।
- भाषा (ब्रजभाषा) और छंद (सवैया, कवित्त) का ध्यान रखें।
- कवि ने किस प्रकार बिंबों और उपमानों का प्रयोग किया है, इस पर ध्यान दें।
अभ्यास हेतु बहुविकल्पीय प्रश्न (MCQs):
-
कवि देव किस काव्य-धारा के प्रमुख कवि माने जाते हैं?
(क) भक्तिकाल
(ख) रीतिकाल
(ग) आधुनिक काल
(घ) आदिकाल -
पहले सवैये 'पाँयनि नूपुर...' में किसका वर्णन किया गया है?
(क) वसंत ऋतु का
(ख) राधा के सौंदर्य का
(ग) बालक कृष्ण के रूप-सौंदर्य का
(घ) पूर्णिमा की रात का -
'कटि किंकिनि कै धुनि की मधुराई' पंक्ति में 'किंकिनि' शब्द का क्या अर्थ है?
(क) पायल
(ख) कंगन
(ग) करधनी (कमर में पहनने का आभूषण)
(घ) गले का हार -
'मुखचंद जुन्हाई' में कौन सा अलंकार है?
(क) उपमा
(ख) रूपक
(ग) यमक
(घ) श्लेष -
दूसरे कवित्त 'डार द्रुम पलना...' में वसंत को किसका पुत्र बताया गया है?
(क) इंद्र का
(ख) पवन का
(ग) कामदेव (मदन) का
(घ) सूर्य का -
वसंत रूपी बालक को सुबह कौन जगाता है?
(क) कोयल
(ख) मोर
(ग) पवन
(घ) गुलाब (चुटकी बजाकर) -
'डार द्रुम पलना...' कवित्त में प्रमुख अलंकार कौन सा है?
(क) उपमा
(ख) रूपक
(ग) मानवीकरण
(घ) अतिशयोक्ति -
तीसरे कवित्त 'फटिक सिलानि...' में 'फटिक' का क्या अर्थ है?
(क) पत्थर
(ख) स्फटिक (एक प्रकार का पारदर्शी पत्थर/क्रिस्टल)
(ग) मोती
(घ) चाँदी -
चाँदनी रात की उज्ज्वलता की तुलना किससे नहीं की गई है?
(क) सुधा मंदिर से
(ख) दही के समुद्र से
(ग) दूध के झाग से
(घ) सोने के महल से -
कवि ने आकाश को किसके समान बताया है?
(क) नीले कपड़े के समान
(ख) दर्पण (आरसी) के समान
(ग) समुद्र के समान
(घ) स्फटिक शिला के समान
उत्तरमाला:
- (ख)
- (ग)
- (ग)
- (ख)
- (ग)
- (घ)
- (ग)
- (ख)
- (घ)
- (ख)
इन नोट्स और प्रश्नों का ध्यानपूर्वक अध्ययन करें। शुभकामनाएँ!