Class 11 Hindi Notes Chapter 12 (देव : हँसी की चोट ; सपना ; दरबार) – Antra Book

Antra
नमस्ते विद्यार्थियों!

आज हम रीतिकाल के श्रेष्ठ कवियों में से एक, महाकवि देव के काव्य संसार का अध्ययन करेंगे। आपकी परीक्षा की तैयारी को ध्यान में रखते हुए, हम उनके द्वारा रचित तीन पदों - 'हँसी की चोट', 'सपना' और 'दरबार' का विस्तृत विश्लेषण करेंगे। यह अध्याय न केवल साहित्यिक सौंदर्य से परिपूर्ण है, बल्कि रीतिकलीन काव्य की विशेषताओं को भी दर्शाता है।

कवि परिचय : देव (1673-1767 ई.)

  • पूरा नाम: देवदत्त द्विवेदी।
  • जन्म स्थान: इटावा, उत्तर प्रदेश।
  • काल: रीतिकाल के रीतिबद्ध काव्यधारा के प्रमुख कवि।
  • विशेषता: देव श्रृंगार रस के आचार्य कवि माने जाते हैं। उन्होंने संयोग और वियोग श्रृंगार के अत्यंत मार्मिक और सजीव चित्र प्रस्तुत किए हैं। उनकी भाषा अत्यंत परिष्कृत और संगीतात्मक ब्रजभाषा है। अलंकारों का प्रयोग सहज और भावों को उत्कृष्ट बनाने वाला है।
  • प्रमुख रचनाएँ: भावविलास, अष्टयाम, भवानीविलास, रसవిలాस, काव्यरसायन आदि।

अध्याय 12: देव - विस्तृत नोट्स

इस पाठ में देव के तीन अलग-अलग भावों के पद संकलित हैं। पहला और दूसरा पद श्रृंगार रस से संबंधित है, जबकि तीसरा पद तत्कालीन दरबारी संस्कृति पर एक तीखा व्यंग्य है।

1. पहला सवैया : 'हँसी की चोट'

प्रसंग:
इस सवैये में कवि देव ने वियोग श्रृंगार का अत्यंत मार्मिक चित्रण किया है। कृष्ण के चले जाने के बाद एक गोपी विरह की अग्नि में जल रही है। कृष्ण ने जाते समय जिस तरह हँसकर उसकी ओर देखा था, वह हँसी उसके हृदय में चोट की तरह चुभ गई है। उसी विरह-वेदना में उसके शरीर के पंचतत्व धीरे-धीरे समाप्त हो रहे हैं।

व्याख्या:

  • "साँसनि ही सौं समीर गयो अरु, आँसुन ही सब नीर गयो ढरि।"

    • अर्थ: गोपी कहती है कि विरह में लंबी साँसें लेने के कारण मेरे शरीर का वायु तत्व (समीर) समाप्त हो गया है और निरंतर आँसू बहने के कारण जल तत्व (नीर) भी बह गया है।
  • "तेज गयो गुन लै अपनो, अरु भूमि गई तनु की तनुता करि।"

    • अर्थ: शरीर की कांति या तेज (अग्नि तत्व) भी अपने गुण लेकर चला गया है, अर्थात् शरीर कांतिहीन हो गया है। शरीर की दुर्बलता (तनुता) के कारण पृथ्वी तत्व भी समाप्त हो गया है।
  • "देव जियै मिलिबे ही की आस कै, आसहु पास अकास रह्यो भरि।"

    • अर्थ: कवि देव कहते हैं कि गोपी केवल कृष्ण से मिलने की आशा में ही जीवित है। इसी आशा के कारण उसके पास केवल आकाश तत्व शेष रह गया है, जो चारों ओर फैला है और जिसे देखकर वह कृष्ण के आने की प्रतीक्षा करती है।
  • "जा दिन तै मुख फेरि हरै हँसि, हेरि हियो जु लियो हरि जू हरि।"

    • अर्थ: गोपी कहती है कि जिस दिन से श्री कृष्ण ने मुँह फेरकर उस हँसी के साथ मेरी ओर देखा था, उसी क्षण उन्होंने मेरा हृदय हर लिया (चुरा लिया)। उनकी वह हँसी मेरे हृदय में चोट की तरह चुभ गई है और उसी के कारण मेरी यह दशा हुई है।

काव्य सौंदर्य:

  1. भाव पक्ष:
    • वियोग श्रृंगार की चरम अवस्था का चित्रण है।
    • विरह में शरीर के पंचतत्वों के क्षीण होने की कल्पना अद्भुत और मौलिक है।
    • मिलन की आशा ही जीवन का आधार है, यह भाव सशक्त रूप से व्यक्त हुआ है।
  2. कला पक्ष:
    • भाषा: सरस, मधुर और प्रवाहमयी ब्रजभाषा।
    • छंद: सवैया।
    • अलंकार:
      • अनुप्रास: "तनु की तनुता", "हरै हँसि, हेरि हियो"।
      • अतिशयोक्ति: पंचतत्वों के समाप्त होने की कल्पना में।
      • रूपक: "हँसी की चोट"।

2. दूसरा कवित्त : 'सपना'

प्रसंग:
इस कवित्त में कवि ने संयोग और वियोग के सुखद-दुखद मिलन का सुंदर चित्र प्रस्तुत किया है। नायिका (गोपी) स्वप्न में कृष्ण का सान्निध्य पाकर प्रसन्न होती है, किंतु जैसे ही नींद खुलती है, वह स्वप्न टूट जाता है और वह पुनः विरह की पीड़ा में डूब जाती है।

व्याख्या:

  • "झहरि-झहरि झीनी बूँद हैं परति मानो, घहरि-घहरि घटा घेरी है गगन में।"

    • अर्थ: नायिका अपने स्वप्न का वर्णन करती हुई कहती है कि आकाश में बादल घुमड़-घुमड़ कर छाए हुए हैं और वर्षा की हल्की-हल्की फुहारें (झीनी बूँदें) झर-झर कर बरस रही हैं।
  • "आनि कह्यो स्याम मो सौं 'चलौ झूलिबे को आजु', फूली न समानी भई ऐसी हौं मगन मैं।"

    • अर्थ: ऐसे सुहावने मौसम में श्रीकृष्ण ने आकर मुझसे कहा कि 'आज झूला झूलने चलो'। यह सुनकर मैं इतनी आनंदित और मग्न हो गई कि मैं फूली नहीं समाई।
  • "चाहत उठ्योई उठि गई सो निगोड़ी नींद, सोए गए भाग मेरे जानि वा जगन में।"

    • अर्थ: जैसे ही मैंने उनके साथ जाने के लिए उठना चाहा, तभी मेरी दुष्ट (निगोड़ी) नींद खुल गई। उस जागने में मेरे सोए हुए भाग्य भी मानो फिर से सो गए।
  • "आँख खोलि देखौं तौ न घन हैं, न घनश्याम, वेई छाई बूँदें मेरे आँसु ह्वै दृगन में।"

    • अर्थ: जब मैंने आँखें खोलकर देखा तो वहाँ न तो बादल (घन) थे और न ही घनश्याम (श्रीकृष्ण)। मेरे नेत्रों में वही स्वप्न वाली बूँदें अब आँसू बनकर छाई हुई थीं।

काव्य सौंदर्य:

  1. भाव पक्ष:
    • स्वप्न में संयोग और जागने पर वियोग का अत्यंत मार्मिक चित्रण।
    • नायिका की आशा और निराशा के बीच की मनोदशा का सुंदर अंकन।
  2. कला पक्ष:
    • भाषा: चित्रात्मक ब्रजभाषा। शब्दों से ध्वनि और दृश्य बिंब साकार हो उठते हैं।
    • छंद: कवित्त।
    • अलंकार:
      • पुनरुक्ति प्रकाश: "झहरि-झहरि", "घहरि-घहरि"।
      • अनुप्रास: "घेरी है गगन में"।
      • यमक/श्लेष: "घन" और "घनश्याम" में शब्द-क्रीड़ा का सुंदर प्रयोग है (घन = बादल, घनश्याम = कृष्ण)।

3. तीसरा कवित्त : 'दरबार'

प्रसंग:
यह कवित्त देव की सामाजिक चेतना और निर्भीकता का परिचायक है। इसमें कवि ने तत्कालीन पतनशील और निष्क्रिय सामंती व्यवस्था तथा दरबारी संस्कृति पर तीखा व्यंग्य किया है।

व्याख्या:

  • "साहिब अंध, मुसाहिब मूक, सभा बहिरी..."

    • अर्थ: जिस दरबार का राजा (साहिब) अंधा हो, यानी उसे गुण-अवगुण की परख न हो; जिसके दरबारी (मुसाहिब) गूँगे हों, यानी सच बोलने का साहस न रखते हों; और जहाँ की पूरी सभा ही बहरी हो, यानी किसी की भी अच्छी बात सुनने को तैयार न हो, उस दरबार का क्या हाल होगा!
  • "रंग-रिझ को कछू कहिबो न, बूझ्यो न कोऊ, बतायो न कोऊ।"

    • अर्थ: ऐसे दरबार में कला और प्रतिभा (रंग-रिझ) के बारे में न तो कोई कुछ कहता है, न कोई समझता है और न ही कोई बताता है।
  • "भूल्यो तहाँ भटक्यो बिसराम, बतायो सबै मिलि एकै सो ऊघो।"

    • अर्थ: ऐसे वातावरण में तो बुद्धिमान व्यक्ति भी आकर भ्रमित हो जाता है। सब मिलकर एक जैसे ऊँघते हुए, अकर्मण्य और निष्क्रिय बने रहते हैं।
  • "भेस न सूझ्यो, कह्यो समुझायो न, बूझि कहै ‘कहाँ देखि सो देखी’?"

    • अर्थ: किसी को सही मार्ग नहीं सूझता, समझाने पर भी कोई नहीं समझता। यदि कोई कुछ पूछता भी है तो कहता है, 'कहाँ देखी?' अर्थात् वे अपनी दुनिया से बाहर कुछ देखना-सुनना ही नहीं चाहते।
  • "साहित्य-सार र कला-कुसलता, पैठि रही चुपचाप कोने।"

    • अर्थ: उस दरबार में साहित्य का सार और कला की कुशलता किसी कोने में चुपचाप दुबकी पड़ी है, क्योंकि उनका कोई सम्मान नहीं है।

काव्य सौंदर्य:

  1. भाव पक्ष:
    • पतनशील सामंती व्यवस्था पर तीखा व्यंग्य।
    • कला और कलाकारों के निरादर पर कवि की गहरी चिंता व्यक्त हुई है।
    • यह कवित्त देव की सामाजिक जागरूकता को दर्शाता है।
  2. कला पक्ष:
    • भाषा: व्यंग्यात्मक और प्रवाहपूर्ण ब्रजभाषा।
    • छंद: कवित्त।
    • अलंकार:
      • अन्ययोक्ति: दरबार के माध्यम से समाज की निष्क्रियता पर प्रहार।
      • रूपक: राजा को अंधा, दरबारियों को गूँगा और सभा को बहरा कहना।

अभ्यास हेतु बहुविकल्पीय प्रश्न (MCQs)

  1. कवि देव का पूरा नाम क्या था?
    (क) देव शर्मा
    (ख) देवदत्त द्विवेदी
    (ग) देव कुमार
    (घ) देव प्रकाश

  2. 'हँसी की चोट' सवैये में गोपी के शरीर में कौन-सा तत्व शेष बचा है?
    (क) अग्नि
    (ख) जल
    (ग) वायु
    (घ) आकाश

  3. 'सपना' कविता में नायिका के जागने पर उसे क्या दिखाई देता है?
    (क) घन और घनश्याम
    (ख) केवल घनश्याम
    (ग) केवल बादल
    (घ) न घन, न घनश्याम

  4. "झहरि-झहरि झीनी बूँद हैं परति मानो" - इस पंक्ति में 'झहरि-झहरि' में कौन-सा अलंकार है?
    (क) यमक
    (ख) श्लेष
    (ग) पुनरुक्ति प्रकाश
    (घ) उपमा

  5. 'दरबार' कवित्त में कवि ने किस पर व्यंग्य किया है?
    (क) आम जनता पर
    (ख) पतनशील सामंती व्यवस्था पर
    (ग) कवियों पर
    (घ) धार्मिक आडंबरों पर

  6. 'हँसी की चोट' सवैये के अनुसार, गोपी का हृदय किसने और कैसे हर लिया था?
    (क) कृष्ण ने अपनी मुरली से
    (ख) कृष्ण ने अपनी हँसी से
    (ग) कृष्ण ने अपने वचनों से
    (घ) कृष्ण ने अपने रूप से

  7. "साहिब अंध, मुसाहिब मूक, सभा बहिरी" - इस पंक्ति में 'साहिब' का क्या अर्थ है?
    (क) दरबारी
    (ख) मंत्री
    (ग) राजा या स्वामी
    (घ) कवि

  8. कवि देव किस काल के कवि हैं?
    (क) भक्तिकाल
    (ख) रीतिकाल
    (ग) आदिकाल
    (घ) आधुनिक काल

  9. 'सपना' कविता में श्रीकृष्ण नायिका को किसलिए बुलाते हैं?
    (क) रास रचाने के लिए
    (ख) माखन खाने के लिए
    (ग) झूला झूलने के लिए
    (घ) यमुना तट पर घूमने के लिए

  10. 'दरबार' कवित्त के अनुसार, निष्क्रिय दरबार में कला और साहित्य की क्या दशा है?
    (क) उनका बहुत सम्मान है
    (ख) वे किसी कोने में चुपचाप पड़ी हैं
    (ग) उन पर बहुत चर्चा होती है
    (घ) राजा स्वयं कला के पारखी हैं

उत्तर:

  1. (ख), 2. (घ), 3. (घ), 4. (ग), 5. (ख), 6. (ख), 7. (ग), 8. (ख), 9. (ग), 10. (ख)

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